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‘कुछ इलाहाबाद में सामां नहीं बहबूद के, यां धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के’ कहने वाले नामवर शायर अकबर इलाहाबादी को क्या मालूम था कि जो शहर कभी उनके नाम से जाना जाता था, जिसकी चिट्ठियों में पते की जगह सिर्फ अकबर इलाहाबादी लिखा होता था, उसके इस दुनिया से रुखसत होने के बाद कोई निशानी बाकी नहीं रहेगी। 16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद में पैदा हुए अकबर अदालत में एक छोटे मुलाजिम थे, लेकिन बाद में कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के बाद वह सेशन जज बने और इसी पद से रिटायर हुए। तकरीबन 75 बरस की उम्र में इलाहाबाद में ही 9 सितंबर, 1921 को उन्होंने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्हें रुखसत हुए पूरे सौ बरस बीत गए लेकिन उनकी शायरी और शख्सियत आज भी उसी तरह बुलंद है।
काला डांडा कब्रिस्तान स्थित अकबर इलाहाबाद की मजार। |
वैसे तो अकबर से रिश्ता जोड़ने वाले जाने कितने हैं लेकिन खूनी रिश्ते से वारिसों का कोई नामोनिशां न होने से अकबर इलाहाबादी अपने ही शहर में तकरीबन बेगाने से गए हैं। अकबर के नहीं रहने पर उनसे जुड़ी चीजें भी जाने कहां गुम हो गईं। यहां तक कि लोग चिट्ठियां तक साथ ले गए।
शहर में अकबर की यादों को संजोए हुए बस दो ही निशां बाकी हैं, उनकी रानी मंडी वाली कोठी ‘इशरत मंजिल’ जिसमें अब यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज है और दूसरा उनकी मजार, जो काला डांडा कब्रिस्तान में हैं, जहां शबेरात पर भी कुछ चाहने वालों के सिवा परिवार का कोई भी शख्स चरागां के लिए भी नहीं जाता।
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हालांकि ऐसा नहीं कि अकबर लावल्द (नि:संतान) थे। उन्होंने पहली पत्नी के नहीं रहने पर दूसरी शादी की और दोंनो बीबियों से दो-दो संतान हुई। उनके जीवित रहते ही एक बेटे का निधन हो गया था जबकि बाकी बेटे पढ़ने के लिए विदेश चले गए और वहीं के होकर रह गए। देश के बंटवारे के वक्त बेटी पाकिस्तान जा बसी। जाने से पहले उन्होंने किसी करीबी रिश्तेदार को कोठी में बसा दिया था। वक्त के साथ कई बार करवट लेती हुई यह कोठी आज शिक्षा के केंद्र के रूप में मौजूद है।
बच्चे बोले, ‘चाचा जी स्कूल चाहिए’ और ‘इशरत मंजिल’ में आ गया यादगारे हुसैनी
वक्त के साथ अकबर की कोठी में कई तरह की तब्दीलियां हो चुकी हैं। बुजुर्ग बताते हैं, कभी जीटी रोड स्थित अफसर लिफाफा सेंटर के बगल से कोठी का रास्ता था, जो वक्त के साथ बदल गया और अब मुख्य दरवाजा रानीमंडी की ओर खुलता है। अकबर के नहीं रहने पर उनके तमाम चाहने वालों ने अकबर मेमोरियल सोसाइटी का गठन करके इसी कोठी में वर्ष1948 में पुस्तकालय की स्थापना की लेकिन माहौल अच्छा न होने से पुस्तकालय खुलता, बंद होता रहा।
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यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज से रिटाटयर शिक्षक और लेखक हाजी सैयद अजादार हुसैन कहते हैं, रानीमंडी में नवाब नन्हें खां की कोठी में इमामिया जूनियर हाईस्कूल चलता था। हजरत इमाम हुसैन की 1300वीं पुण्यतिथि पर वर्ष 1942 में यहां भी शिया इंटर कॉलेज खोलने का प्रस्ताव पारित किया गया। वर्ष 1949 में इमामिया को हाईस्कूल की मान्यता मिली। तब मौलाना कल्बे अब्बास कमेटी के अध्यक्ष थे जिनकी सरपरस्ती में कक्षा आठ के छात्र हाशिम रजा आब्दी के नेतृत्व में बस्ता लेकर छात्र 1949 में आनंद भवन में नेहरू जी से मिले और गुहार लगाई, चाचा जी स्कूल चाहिए। मांग की गई कि अकबर मेमोरियल लाइब्रेरी स्कूल के नाम कर दी जाए।
पंडित नेहरू ने यह प्रस्ताव शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद को दिया। उन्होंने शिक्षा सचिव प्रो.हुमांयू कबीर को इसकी जांच की जिम्मेदारी सौंपी। प्रो.हुमांयू ने रिपोर्ट में कहा, सोसाइटी अप्रभावी है और बच्चों को स्कूल की जरूरत है। फिर भवन का मूल्यांकन करके इसकी कीमत 52 हजार रुपये तय की गई, जिसे एक वर्ष के भीतर चार समान किस्तों में अदा करना था। लेकिन, यह रकम उस जमाने में बहुत ज्यादा थी। लिहाजा जुमे की नमाज के बाद और घर-घर जाकर भी चंदा एकत्र करकेरकम जुटाकर अदा की गई। तब इशरत मंजिल, यादगारे सोसाइटी के नाम से हस्तांरित कर दी गई। वर्ष 1953 में यह स्कूल में तब्दील हो गया।
इशरत मंजिल की तर्ज पर ही रखा गया आनंद भवन
अकबर इलाहाबादी और मोतीलाल नेहरू बहुत अच्छे मित्र थे, सो जब मोती लाल नेहरू ने आनंद भवन खरीदा तो उन्होंने इसके नाम के लिए अकबर से सलाह ली। तब अकबर ने कहा था, मेरी इशरत मंजिल का तर्जुमा (अनुवाद) कर दें, जिसका अर्थ था, ऐसा भवन जहां आनंद हो और मोती लाल नेहरू को नाम मिल गया, आनंद भवन।