रिपो० सुबेश शर्मा
अलीगढ़ : इंसान की अंतिम विदाई में मन समभाव हो जाता है। दल छोटे हो जाते हैं दिल बड़ा हो जाता है। मगर, लखनऊ में साइकिल वाले भैया के न पहुंचने पर सवाल उठ गए। अब उन्हें जवाब नहीं देते बन रहा है। ऐसा सिर्फ उन्होंने नहीं किया, जिले में भी तमाम ऐसे नेता रहे जो बाबूजी की अंतिम विदाई में नहीं पहुंचे। जिस समय बाबूजी का पार्थिव शरीर था उस समय वह कार्यक्रमों में व्यस्त अपने गले में माला डलवाने में व्यस्त थे। बस चंद कदम की दूरी थी, पर उन्हें वक्त नहीं मिला। तनिक बात पर संवेदना जताने वाले कई और नेता हैं, जिनके मुंह से संवेदना के दो शब्द नहीं निकलें। उन्हें अपनी सियाासत का डर है। वो ऐसे समय में भी नफा-नुकसान देख रहे थे। मगर यह समय का चक्र है, इसकी धुरी पर हर किसी को आना होता है, इसलिए ऐसे समय में सियासत नहीं, बल्कि सद्भावना की जरूरत होती है।
पलभर में कोई नहीं बनता कल्याण
आजकल राजनीति में भी लोग रफटफ चाहते हैं। शार्टकट के माध्यम से शिखर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। मगर, पलभर में कोई कल्याण सिंह नहीं बनता है। यह सीख नई पीढ़ी को अंतिम विदाई में बाबूजी दे गए। उमड़ा जनसमूह उनके एक दर्शन को हिलोरे मार रहा था, बुजुर्गों की आंखों में भी आंसुओं का सैलाब था। लंबी साधना और उनकी अविरल यात्रा को लोग याद कर रहे थे। बाबूजी कभी साइकिल से चले तो कभी जीप को धक्का भी लगाना पड़ा। मगर, कभी अविचलित नहीं हुए। एक साधक की तरह वो आगे बढ़ते चले गए, निर्णय लिया तो सीना ठोकर स्वीकार भी किया। इसलिए जाते-जाते बाबूजी नई पीढ़ी को सीख दे गए कि राजनीति में आगे बढ़ना है तो जमीन से जुड़ो। संघर्ष करो, संकट में घबराओं नहीं। परिक्रमा नहीं बल्कि पराक्रम पर विश्वास करो। एक दिन निश्चित शिखर का मार्ग प्रशस्त होगा।
छोड़ते हैं तीर, ऐसे हैं वीर
पंजे वाली पार्टी में कार्यकर्ता कम हैं, जुबानी तीर छोड़ने वाले नेताजी बहुत हैं। ये तीर छोड़कर अपने आपको सबसे वीर समझते हैं। इसे में खूब खुश भी रहते हैं। इसलिए इन तीरों से घायल होकर तमाम नेता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं। वो देख रहे हैं कि पार्टी में सिर्फ तीरों की बौछार है, इसलिए अपना रास्ता कहीं और बना लो। पार्टी के शीर्ष नेता भी कुछ ठोस कदम नहीं उठाते हैं। अब पार्टी के नये जिलाध्यक्ष पर तीरों की बौछार शुरू हो गई है। एक नेताजी घर बैठे ही जुबानी तीर छोड़ दिया करते हैं। अब वोट बैंक की राजनीति का आरोप लगाते हुए तीर छोड़नी शुरू कर दी है। मगर, नेताजी काे समझना चाहिए कि जब पार्टी के शीर्ष के नेता संगठन के प्रति चिंतित नहीं हैं तो उनके तीर छोड़ने से क्या होने वाला है? ऐसा ही रहा तो सिर्फ तीर ही तीर बचेंगे, नेता पार्टी छोड़ चुके होंगे। इसलिए सिर्फ संगठन को एकजुट बनाए रखने की जरूरत है।
चलो थाना घेरने चले
गजब है, अपनी ही सरकार में इन्हें थाना घेरना पड़ता है। कमल वाली पार्टी में साढ़े चार साल में यही हुआ। कार्यकर्ताओं पर ही खुद मुकदमे दर्ज हो जाते हैं, उन्हें पाबंद कर दिया जाता है। पुलिस-प्रशासन बड़े नेताओं तक की नहीं सुनते। अभी कुछ दिन पहले भी एक मामले में कई नेताओं को पाबंद कर दिया गया। दूसरे दिन ही आवाज उठी चलो थाना घेरते हैं। ऐसे कई मामले आए, जब नेताजी को थाना घेरना पड़ा, पुलिस अधिकारियों से नोकझोंक तक करनी पड़ी। एक वरिष्ठ कार्यकर्ता इस थाना घेराई से खींझ गए। उन्होंने आखिर पाबंद वाले मामले में कह ही दिया, संगठन में बड़ी समस्या है। विपक्ष में रहे तब भी थाना घेरना पड़ा, अब अपनी सरकार में भी बात-बात पर थाना घेरना पड़ जाए तो फिर इससे शर्म की बात और क्या हो सकती है? ऐसे में कार्यकर्ताओं का मनोबल कैसे बढ़ेगा? पर नेताजी की तो सिर्फ एक ही बात रहती है? चलो थाना घेरने चलते हैं।